Unique Diwali Tradition: छत्तीसगढ़ के सरगुजा संभाग में जनजातीय समाज अपनी अनोखी परंपराओं के लिए जाना जाता है। इनमें से एक खास परंपरा दिवाली से जुड़ी है। यहाँ के लोग दिवाली का त्योहार दीपावली के दिन नहीं, बल्कि उसके दस दिन बाद कार्तिक अमावस्या यानी देवउठनी एकादशी के दिन मनाते हैं।

देवउठनी एकादशी पर पूजा

पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, देवउठनी एकादशी के दिन भगवान विष्णु निद्रा से जागते हैं। इसी वजह से जनजातीय समाज में दिवाली के दिन अकेले माता लक्ष्मी की पूजा नहीं होती, बल्कि माता लक्ष्मी और भगवान नारायण दोनों की पूजा एक साथ की जाती है। अहीर, साहू और अन्य जातियों के लोग भी इसी परंपरा का पालन करते हैं।

सोहराई और लोक कला का उत्सव

इस दिन समाज के लोग गाय का पूजन करते हैं, जिसे लक्ष्मी का प्रतीक माना जाता है। साथ ही गुरु-शिष्य परंपरा का भी पालन होता है, जिसमें शिष्य अपने गुरु का सम्मान कर उन्हें भोजन और कपड़े भेंट करते हैं। समाज में सोहराई पर्व के रूप में लोक गीत और लोक नृत्य के साथ यह दिवाली धूमधाम से मनाई जाती है। सरगुजा के ग्रामीण अंचल में इस त्योहार को देवउठनी सोहराई के नाम से जाना जाता है।

आध्यात्मिक महत्व

साहित्यकारों के अनुसार, यह त्यौहार अंधकार पर प्रकाश की विजय और देवताओं के जागरण का प्रतीक है। जनजातीय समाज की मान्यता है कि जब देवता जागेंगे तभी पूजा की शुरुआत करनी चाहिए। इसी दिन धान रखने वाले कोठार की पूजा भी की जाती है। सरगुजा की यह दिवाली परंपरा न सिर्फ धार्मिक, बल्कि सांस्कृतिक और सामाजिक दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है।

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