युवा पत्रकार अभिषेक सोनी की कलम से ✍️✍️

पत्रकारिता को लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, लेकिन यह स्तंभ तभी मजबूत रहता है जब इसकी नींव निष्पक्षता पर टिकी हो। अफसोस की बात यह है कि आज कई जगह खबरें लिखने से पहले कलम रिश्तों और भाईचारे की बेड़ियों में जकड़ जाती है। आज के दौर में पत्रकारिता समाज का आईना होने के बजाय, अक्सर रिश्तों, दोस्तियों और आपसी भाईचारे के जाल में उलझती जा रही है। यह वह स्थिति है जहाँ व्यक्तिगत संबंध और निजी स्वार्थ, सच्चाई के मार्ग में दीवार खड़ी कर देते हैं।

पत्रकारिता का मूल उद्देश्य है जनता के सामने निर्भीक, निष्पक्ष और सच को रखना। लेकिन जब किसी पत्रकार के सामने अपने ही परिचित, मित्र या रिश्तेदार का मामला आता है, तो कई बार कलम रुक जाती है, सच्चाई पर परदा डाल दिया जाता है। यह प्रवृत्ति केवल खबर को नहीं, बल्कि पूरी पत्रकारिता की विश्वसनीयता को नुकसान पहुँचाती है।

एकपक्षीय खबरें न केवल तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश करती हैं, बल्कि आम जनता के मन में भी मीडिया के प्रति अविश्वास पैदा करती हैं। जब पाठक या दर्शक महसूस करते हैं कि खबर में एक पक्ष को जानबूझकर दबाया गया है, तो वे धीरे-धीरे मीडिया से दूरी बनाने लगते हैं।


जब पत्रकार अपनी जिम्मेदारी से ज़्यादा अपने यार-दोस्त, रिश्तेदार या राजनीतिक आकाओं को खुश करने की फिक्र करने लगे, तो खबरें खबर नहीं रह जातीं—वे विज्ञापन या प्रचार पत्र बन जाती हैं।यह “एकपक्षीय पत्रकारिता” सिर्फ सच को तोड़ती-मरोड़ती ही नहीं, बल्कि जनता के भरोसे को भी चीर-फाड़ देती है।

पत्रकारिता में निष्पक्षता बनाए रखने के लिए जरूरी है कि व्यक्तिगत संबंध, खबर से अलग रखे जाएँ, हर खबर में दोनों पक्षों को बराबर मौका मिले और पत्रकार अपनी कलम को किसी भी दबाव, लालच या डर से मुक्त रखे।


अगर पत्रकार अपने पेशेवर दायित्व को रिश्तों के तराजू पर तौलने लगेंगे, तो यह लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की नींव को कमजोर करेगा। समाज को सच जानने का अधिकार है, और यह अधिकार केवल तभी सुरक्षित रह सकता है जब पत्रकारिता भाईचारे के मोह से ऊपर उठकर सच्चाई का साथ दे।


सवाल ये है क्या पत्रकारिता रिश्तों की वफादार होनी चाहिए, या सच्चाई की?

अगर कलम किसी की कृपा, नजदीकी या डर में कैद हो गई, तो यह सिर्फ एक व्यक्ति या संस्था का नुकसान नहीं, बल्कि पूरे समाज और लोकतंत्र की हार है।


जब तक कलम भाईचारे के मोह से मुक्त नहीं होगी, तब तक यह सिर्फ कागज काला करेगी, सच्चाई उजागर नहीं करेगी। पत्रकार का धर्म है जनता के प्रति जवाबदेह रहना ना कि अपने दोस्तों या आकाओं के प्रति।

सच बोलना मुश्किल है, लेकिन सबसे ज्यादा मुश्किल तब होता है जब बोलने वाला और सुनने वाला, दोनों आपके अपने हों। आज पत्रकारिता का सबसे बड़ा रोग यही है भाईचारे की बीमारी। यह वो वायरस है जो कलम को लकवा मार देता है, और सच को पन्नों पर आने से पहले ही मार देता है।

दोस्ती, रिश्तेदारी, और राजनीतिक चमचागिरी तीनों ने मिलकर खबर को मरा हुआ कागज बना दिया है। रिपोर्टर खबर नहीं लिख रहे, बल्कि अपने “अपने” को बचाने के लिए बयानबाज़ी कर रहे हैं।और फिर जनता से उम्मीद करते हैं कि वो मीडिया पर भरोसा करे?

ये सिर्फ पत्रकारिता की हत्या नहीं करतीं, बल्कि लोकतंत्र के गले में फंदा डाल देती हैं। जिस कलम का काम था सवाल पूछना, वो अब सिर्फ चापलूसी लिखने में लगी है।

याद रखिए पत्रकार का एक ही धर्म है: सच बोलना, चाहे उसका सिर ही क्यों न कट जाए। जिस दिन पत्रकार अपने भाई, दोस्त, या आकाओं के लिए सच दबाएगा, उस दिन उसकी कलम मर चुकी होगी।

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