पटना: बिहार विधानसभा चुनाव 2025 का पहला चरण खत्म हो गया है, लेकिन अब चुनौती राजनीतिक दलों से ज्यादा एग्जिट पोल एजेंसियों के सामने है। राज्य में वोटरों की पहचान उनके सरनेम से करना इतना मुश्किल हो गया है कि सर्वे एजेंसियों के सारे गणित गड़बड़ा रहे हैं।

क्यों फेल हो रहे हैं चुनावी पंडित?

बिहार की राजनीति जातिगत समीकरणों पर टिकी है, लेकिन अब सरनेम की जटिलता ने इसे और पेचीदा बना दिया है। यहां कई ऐसे उपनाम हैं जो ऊंची, पिछड़ी और दलित सभी जातियों में समान रूप से इस्तेमाल होते हैं। उदाहरण के लिए — “चौधरी” सरनेम।

  • सम्राट चौधरी (डिप्टी सीएम, कुशवाहा, OBC, NDA समर्थक)
  • विजय चौधरी (जेडीयू, भूमिहार, सवर्ण, NDA)
  • अवध बिहारी चौधरी (RJD, यादव, OBC)
  • अशोक चौधरी (जेडीयू, पासी, दलित, NDA)

यानी एक ही सरनेम कई जातियों का प्रतिनिधित्व करता है। यही कारण है कि सर्वे एजेंसियां जब किसी वोटर का नाम और उपनाम पूछती हैं, तो जाति का सही अनुमान नहीं लगा पातीं।

सर्वे एजेंसियों की सबसे बड़ी मुश्किल

एग्जिट पोल टीम आमतौर पर लोगों से सीधा जाति सवाल नहीं पूछतीं, बल्कि नाम और सरनेम के आधार पर अनुमान लगाती हैं। लेकिन बिहार में ‘विजय चौधरी’ या ‘संतोष सिंह’ जैसे नाम जातिगत पहचान को स्पष्ट नहीं करते। इसका परिणाम यह होता है कि एग्जिट पोल का सारा जातिगत विश्लेषण गड़बड़ा जाता है।

वोटिंग ट्रेंड पर सस्पेंस कायम

इस बार बंपर वोटिंग के बाद आरजेडी उत्साहित है और दावा कर रही है कि ज्यादा वोटिंग हमेशा उनके पक्ष में जाती है। लेकिन जटिल जातिगत समीकरणों के चलते यह अंदाजा लगाना मुश्किल है कि बढ़ी हुई वोटिंग का फायदा किसे मिलेगा।

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